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मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंब कहा जाता है। आज इस बात से शायद ही कोई इंकार कर सकता है कि भारत में लोकतंत्र को कायम रखने में इसका एक अहम योगदान है। छोटे-छोटे आंदोलनों को मीडिया ने पूरे देश तक पहूँचाया है। और अन्ना के रामलीला मैदान को कोई कैसे भूल सकता है। तो फिर खुद को आम अादमी कहने वाले केजरीवाल मीडिया पर पाबंदी लगाने के बारे में सोच भी कैसे सकते है। उन्हें ये नहीं भूलना चािहए की आज वो जिस मुकाम पर है उसमें पत्रकारों की एक अहम भूमिका रही है। आपातकाल से लेकर आज तक यह लोकतंत्र विरोधी ताकतों के खिलाफ लडती आई है। दिल्ली सचिवालय में पत्रकारों की पाबंदी जनता का दिल दुखाने वाला फैसला है। अरविंद केजरीवाल जैसे व्यक्ति से कोई इस तरह के फैसले की कल्पना भी नहीं कर सकता।
केजरीवाल सरकार को बने अभी कुछ ही दिन हुए है और उनके मंत्रियों के असली रंग अभी से दिखने लगे है। सवाल किये जाने पर मनीष सिसोदिया का कान्फ्रेंस छोङकर जाना और इंटरव्यू लेने उनके घर पहूचे मीडिया कर्मियों पर गुस्सा उतारना इस बात का सबूत है की आम आदमी पार्टी में एक बार फिर अकङ की बू आने लगी है। यकीन नहीं आता की ये वहीं मनीष सिसोदिया है जो चूनाव से पहले तक इन्हीं पत्रकारों को इंटरव्यू देने को सदा आतुर रहते थे। लोकतंत्र में सवालों जवाबों का सिलसिला तो हमेशा चलता ही रहेगा ये इसमें रक्त की तरह है। जिसे बाधित करने का अर्थ है इसकी मृत्यू और प्रचंड बहूमत का यह अर्थ नहीं की जनता ने आपको ये अधिकार दे दिया है।
14 फरवरी को शपथ ग्रहण के दौरान केजरीवाल ने जनता से कहा था कि उनके सामने सबसे बङी चूनौती है घमंड को पार्टी में आने से रोकना और वे इससे पार पाने के लिए हर संभव प्रयास करेंगे लेकिन वे एक बार फिर इसी महाजाल में फसते जा रहे है। केजरीवाल को यह समझना होगी की बङी ताकत के साथ बङी जिम्मेदारी भी आती है और वक्त बीतने के साथ उनपर दबाव बढता ही जायेगा। केजरीवाल ने राजनीति के नियमों को बदला है। वे पिछले दो सालों से यही रट लगाते आ रहें है कि अगर काम करने की नीयत हो तो रास्ते भी खुद निकल आते है। अब वक्त आ गया है की आसमानी खवाबों को जमीनी धरातल पर उतारा जाये। मै केजरीवाल को यही नसीहत देना चाहूँगा की वे मीडिया की ओर ध्यान न देकर दिल्ली की जनता से किया वादो को पूरा करने की ओर ध्यान दे क्योंकि 5 साल का समय ज्यादा नहीं होता।
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